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IT एक्ट की धारा 66Aअभिव्यक्ति की आजादी रद्द होने पर भी उसी के तहत कार्यवाही जारी रखना गलत:सुप्रीम कोर्ट

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IT एक्ट की धारा 66Aअभिव्यक्ति की आजादी रद्द होने पर भी उसी के तहत कार्यवाही जारी रखना गलत:सुप्रीम कोर्ट

प्रतापसिंह

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि देश की शीर्ष अदालत ने एक कानून की जिस धारा को कई साल पहले निरस्त कर दिया हो, उसके तहत पुलिस लोगों को गिरफ्तार करती रहे और इसके जरिए बेवजह प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी रखे। यह एक तरह से कानून को लागू करने वाली संस्था पर गंभीर सवालिया निशान है। शायद इसीलिए अदालत ने साफ लहजे में कहा कि जो रहा है कि वह काफी भयानक, चिंताजनक और चौंकाने वाला है। अदालत की टिप्पणी अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि पुलिस कैसे अपनी मर्जी से किसी कानून की धारा का इस्तेमाल करती है और लोगों को नाहक ही इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। जबकि न्याय की समूची अवधारणा इस बात पर निर्भर करती है कि जमीनी स्तर पर आम लोगों के साथ पुलिस का बर्ताव कैसा होता है और कानूनों के अमल को लेकर वह कैसा रवैया अपनाती है।

यह खुद पुलिस महकमे के लिए चिंता की बात होनी चाहिए कि जिस कानून पर सुप्रीम कोर्ट रोक लगा चुका है, उसका इस्तेमाल वह धड़ल्ले से करती रही और आज इस मसले पर वह कठघरे में खड़ी है।

गौरतलब है कि अदालत के तीन सदस्यीय पीठ ने एक संगठन के आवेदन पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा- 66 ए के दुरुपयोग के सवाल पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। इस मामले में शिकायतकर्ता की ओर से कहा गया है कि ग्यारह राज्यों में जिला न्यायालयों के समक्ष एक हजार से ज्यादा मामले अभी भी लंबित और सक्रिय हैं, जिनमें आरोपी व्यक्तियों पर धारा-66 ए के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2015 में ही श्रेया सिंघल मामले में इस धारा को निरस्त कर दिया था, उसके बाद भी इसके तहत निचली अदालतों में मुकदमे किस आधार पर चल रहे हैं! जाहिर है, पुलिस अपने स्तर पर इस धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज करती रही। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रावधान को रद्द कर दिया है और अभी यह धारा ‘बेयर एक्ट’ में मौजूद है। यानी जब पुलिस अधिकारी को मामला दर्ज करना होता है तो वह नीचे लिखी टिप्पणी को देखे बिना सिर्फ धारा देखता है। किसी कानून के तहत कार्रवाई करने वाली पुलिस की इस लापरवाही के नतीजे के तौर पर अगर किसी को प्रताड़ित होना पड़ता है तो इसकी जवाबदेही किस पर आती है?

यह बेवजह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे आश्चर्यजनक और भयानक माना है। यह जगजाहिर रहा है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की इस धारा का इस्तेमाल किस तरह अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने के लिए किया गया। सोशल मीडिया या स्वतंत्र मंचों पर की गई टिप्पणियों को मनमाने तरीके से आपत्तिजनक की परिभाषा में डाल कर लोगों को गिरफ्तार करना और प्रताड़ित करना एक चलन बनता जा रहा था। इस कानून के तहत इंटरनेट पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने के आरोप में किसी व्यक्ति को तीन वर्ष तक की जेल की सजा हो सकती थी। ऐसे लगातार मामलों के सामने आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि धारा- 66 ए पूरी तरह से अनुच्छेद 19 (1) ए के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अदालत इस मसले पर सख्त लहजे में यहां तक कह चुकी है कि धारा- 66 ए में गिरफ्तारी करने वाले अफसरों को जेल भेज देंगे। मगर शीर्ष अदालत के सख्त रुख के बावजूद इस स्तर की लापरवाही यह बताती है कि कानूनी जटिलताओं की व्याख्या सरकार और पुलिस किस तरह अपनी सुविधा के मुताबिक करती है।

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 2015 में खत्म की गई IT एक्ट की धारा 66A के तहत अब भी दर्ज हो रहे केस को लेकर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है. धारा 66A को मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पूछा कि रद्द होने के बावजूद FIR और ट्रायल में इस धारा का इस्तेमाल क्यों हो रहा है. इस पर अटॉर्नी जनरल (Attorney General) ने कहा कि कानून की किताबें अभी पूरी तरह से बदली नहीं हैं. इसके बाद कोर्ट ने हैरानी जताते हुए केंद्र को नोटिस जारी किया है.
कोर्ट ने ये नोटिस मानवाधिकार पर काम करने वाली संस्था पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) की याचिका पर जारी किया है.

PUCL ने बताया कि अभी भी 11 राज्यों की जिला अदालतों में धारा 66A के तहत दर्ज 745 मामलों पर सुनवाई चल रही है.
किताबें अभी पूरी तरह से बदली नहीं हैं
सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल (KK Venugopal) ने बताया कि कानून की किताबें अभी भी ठीक तरह से बदली नहीं हैं. उन्होंने कहा, “IT एक्ट की जिस धारा 66A को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था, वो धारा अभी कानून की किताबों में है. इन किताबों में बस नीचे एक फुटनोट रहता है जिसमें लिखा होता है कि ये धारा सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी थी.” उन्होंने कहा कि फुटनोट कोई पढ़ता नहीं है, इसलिए किताबों में और थोड़ा साफ लिखा जाना चाहिए ताकि पुलिस अधिकारी भ्रमित न हों. इस पर जस्टिस आरएफ नरीमन (RF Nariman) ने हैरानी जताते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है.

66A के तहत दर्ज 745 केस अभी भी पेंडिंग
कोर्ट में PUCL की ओर से पेश हुए सीनियर वकील संजय पारिख ने बताया कि 10 मार्च 2021 तक देश के 11 राज्यों की अदालतों में अभी भी 745 ऐसे केस पेंडिंग हैं, जिनमें 66A के तहत आरोप तय किए गए हैं. उन्होंने बताया कि इस धारा को सुप्रीम कोर्ट ने अमान्य घोषित कर दिया था, उसके बावजूद पुलिस इसका इस्तेमाल कर रही है.
उन्होंने बताया कि मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद धारा 66A के तहत 1,307 नए केस दर्ज किए गए हैं. सबसे ज्यादा 381 केस महाराष्ट्र में दर्ज किए गए हैं. उसके बाद 295 केस झारखंड में और 245 केस यूपी में दर्ज किए गए हैं.

याचिका में मांग की गई थी कि कोर्ट NCRB या किसी दूसरी एजेंसी को धारा 66A के तहत दर्ज केस के साथ-साथ अदालतों में पेंडिंग मामलों की जानकारी देने का आदेश जारी करे.

क्या है IT एक्ट की धारा 66A?
देश में 2000 में IT कानून लाया गया था. उसके बाद 2008 में इसमें संशोधन कर 66A को जोड़ा गया था. 66A में प्रावधान था कि अगर कोई भी व्यक्ति सोशल मीडिया पर कुछ भी आपत्तिजनक पोस्ट लिखता है या साझा करता है. यहां तक कि अगर ईमेल के जरिए भी कुछ आपत्तिजनक कंटेंट भेजता है तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है. इस धारा के तहत 3 साल की कैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान था. इस धारा के खिलाफ श्रेया सिंघल ने याचिका दायर की थी. इस पर मार्च 2015 ने फैसला देते हुए धारा 66A को ‘असंवैधानिक’ मानते हुए रद्द कर दिया था.।

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